रायगढ़। बचपन से सुनते हुए,बड़े होने पर महसूस करते और उम्र के इस अंतिम पड़ाव की दहलीज से गुजरते हुए यही जाना कि एक दैवीय शक्ति होती है जिसे विभिन्न धर्मों मे अलग अलग नामों से जाना जाता है।हमारे सनातन धर्मशास्त्र तो इसे मानते भी हैं कि कुछ चीजें इन्हीं दैवीय शक्ति द्वारा संपूर्ण प्राणी जगत को मुफ्त में दी जाती है चाहे वह सूरज का ताप हो, बारिश हो या ठंड।इसके लिए प्राणी जगत को कोई मूल्य चुकाना नहीं होता।फिर चाहे वह इन्सान हो या जानवर।शुक्र है जानवरों की बुद्धि मनुष्यों की भांति इतनी विकसित नहीं हुई कि वह इन प्राकृतिक नियमों से खिलवाड़ कर सके। मनुष्य की इस विकसित बुद्धि का ही परिणाम है कि जब जब उसने लालसा वश इस प्रकृति से छेड़छाड़ की प्रकृति ने बख्शा नहीं कभी। मनुष्य की इस विकसित बुद्धि का परिणाम आज के धार्मिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक परिप्रेक्ष्य मे भी बखूबी दिखालाई पड़ रहा हैं। तात्कालिक लक्षणों के रूप में इसे हम हाल ही मे हमारे देश के कुछ राज्यों में होने जा रहे चुनावी परिदृश्य मे देख सकते हैं।सत्ता हासिल करने के लिए पार्टी के नेताओं द्वारा बड़ी बड़ी घोषणाऐं की जा रही है।तकरीबन हर पार्टीअपने स्तर पर चुनावी घोषणाएं कर रही है लेकिन धरातल से अलग ऐसी घोषणाओं का आम लोगों पर कोई प्रभाव नहीं होता बेशक यह जरूर होता है कि चुनावी अवसरों का जादा से जादा फायदा उठाने के प्रयास अब जनता भी सीख चुकी है। हर स्तर की शिक्षा मुफ्त…किसानों की कर्ज माफी या दूसरे शब्दों मे कर्ज मुफ्त, बिजली में छूट,यह मुफ्त ,वह मुफ्त… मूल बिन्दू यह है कि यह नौबत क्यों? किसानों को कर्ज क्यों लेना पड़ता है।इतने वर्षों बाद भी वे आत्मनिर्भर क्यों नही कि कर्ज लेने की नौबत न आए।क्यों छत्तीसगढ़ ही नहीं पूरे देश के किसान अक्सर उत्पादन मूल्य से कम रेट मिलने पर अपनी फसलें सडक़ों पर फेंक देते हैं।शायद उनका स्वाभिमान नेताओं के अभिमान से जादा असरदायक होता है। दूसरी ओर नेतागण है जो इतने मदान्ध हो चुके हैं कि उन्हें ऐसी घोषणाऐं करते झिझक भी नहीं होती।मुफ्त शिक्षा, मुफ्त बिजली, इसमें छूट, उसमें छूट लगता है वे ईश्वर तुल्य बनने की पराकाष्ठा पर हों। दशकों पहले एक नारा बेहद प्रचलित हुआ था ‘गरीबी हटाओ’ गरीबी कितनी हटी इसके साक्षी हम आप सभी हैं।विडंबना यह है कि मूल मुद्दों पर ध्यान ही नहीं। देश का अन्नदाता जब तक गरीब रहेगा देश का भविष्य भूखा ही रहेगा ठीक उसी तरह शिक्षा का स्तर जब तक गुणवत्ता विहीन हो कोई भी मुफ्त में परोसी गई शिक्षा देश के युवा को सही अर्थों में शिक्षित और सुदृढ़ नहीं बना सकती। कोशिश उसमें सुधार और बेहतरी की होनी चाहिए। ऐसे मुद्दों पर सरकारें अपना ध्यान केन्द्रित कर उसमें सुधार के प्रयास क्यों नहीं करतीं।मुफ्त मे मिलने वाली चीज़े हममें मुफ्तखोरी की प्रवृत्ति पैदा करती हैं और धीरे धीरे हम आलसी और निकम्मे होते जाते हैं। छूट का दावा दरअसल लूट का प्रथम चरण है जिसकी भरपाई आगे हमें आपको ही करनी है।छूट हमें इसलिए दी जा रही ताकि उनके लूट के दौर मे हम चुप रहे।यह एक तरह की रिश्वत ही है। बाय वन,गेट वन फ्री की तरह।हकीकत यह है कि फ्री कुछ भी नहीं होता।योरोप के कई देशों मे अच्छी और निशुल्क शिक्षा की व्यवस्था है और अनिवार्यता भी।इसे जनता का संवैधानिक अधिकार माना जाता है।इसकी पूर्ति वे अन्य करों के माध्यम से करते हैं और वहां के नागरिक करों का भुगतान करना अपना राष्ट्रीय कर्तव्य मानते है। क्या यह संभव नहीं इस देश मे….. संभव सब कुछ है यदि आपमें प्रबल इच्छा शक्ति है।विगत आठ वर्षों मे हमनें कई चमत्कारिक परिवर्तन देखे हैं।अनेकअनहोनियों को होते देखा है। चुनाव लोकतंत्र का पर्व है यह एक सम्मान और ताकत है आपकी। इसे बिकाऊ न होने दें यह जानें और पहचानें इस ताकत को। अपने बहुमूल्य वोट की कीमत को व्यर्थ ना जाने दें। राष्ट्रीय हित के आगे कोई निजी या जातिगत हित सर्वोपरि नहीं होता। इसके लिये कोई समझौता न करें और मतदान जरूर करें।
आशा त्रिपाठी