जन्मोत्सव पर विशेष
प्रात: स्मरणीय बुंदेल केसरी महाराजा ‘छत्रसाल’ का जन्म ज्येष्ठ शुक्ल तीज दिन-शुक्रवार सम्वत् 1706 अर्थात् 4 मई 1649 को ओरछा राज्य के अर्न्तगत महेबा के पास मौर पहाड़ी नामक स्थान पर हुआ था। जो मध्य प्रदेश के छत्तरपुर जिले में स्थित है। इनके पिता राव, चम्पत राय छत्रसाल के जन्म के समय दुश्मनों से घिरे थे जिस कारण मोरपहाड़ी पर युद्ध के समय ही इनका जन्म हुआ।
चम्पत राय ओरछा राज्य के एक गांव महेबा के जागीरदार थे। चंपत राय के चारों पुत्रों अंगदराय, रतनशाह छत्रसाल, एवं गोपाल में से पति-पत्नी दोनों को ही छत्रसाल से अधिक प्रीति थी। छत्रसाल का बचपन से ही व्यक्तिव- निराला था। बालक छत्रसाल को शस्त्र व शास्त्र दोनो से बहुत अधिक लगाव था। छोटी उम्र होते हुये भी भगवत चर्चा जहां कहीं भी होती छत्रसाल तन्मयता से कथा सुनते। ननिहाल में 4 वर्ष की अवस्था तक बालक ‘छत्रसाल’ अपनी मां के सानिध्य में रहे। मां ने छत्रसाल को यहीं पर अक्षर-बोध का ज्ञान करवाया, तथा बालक में स्वाभिमान व निर्भीकता कूट-कूट कर भरी। और तभी से उन्हें सैनिक शिक्षा दी जाने लगी। बहुत ही अल्प समय में छत्रसाल ने अस्त्र-शस्त्र संचालन तलवारबाजी, घुड़सवारी, तैराकी, नाव चलाना तथा अन्य उपयोगी शिक्षा प्राप्त कर ली थी।
कहते है कि 7 वर्ष की अवस्था में छत्रसाल बाल गोविन्द के मंदिर मे जाते और घण्टो बैठकर भगवान की छवि को निहारते रहते। मंदिर से सब लोगों के चले जाने पर भगवान को अपने साथ नृत्य करने की हठ करते। एक बार मंदिर के पण्डा ने देखा कि मंदिर में नृत्य और घुंघरूओं की आवाज आ रही है। वह मंदिर में आया और उसने देखा कि छत्रसाल भगवान की मूर्ति के साथ नृत्य कर रहे है। पण्डा ने तुरंत आकर बाल-गोविन्द की पोढ़ावनी की इस पर छत्रसाल बिलख-बिलख कर रोने लगे। और कहने लगे थोड़ी देर और भगवान को मेरे साथ खेलने देते। यह बात सुनकर नगरवासी बड़ा आशार्य करते। छत्रसाल हमेशा एकांत के समय ही मंदिर में चुपके-चुपके जाया करते थे।
छत्रसाल एवं छत्रपति शिवाजी का मिलाप
उन्होंने किशोरा अवस्था में मुगल सेना में सम्मिलत होकर कुछ समय तक युद्ध विद्या सीखी। एक दिन वीर छत्रसाल के मन मे महाराष्ट्र के महान शक्तिशाली शासक छत्रपति शिवाजी के दर्शन करने की इच्छा हुई। वन पर्वत नदियों को पार करते हुसे युवा छत्रसाल शिवाजी के पास पहुँचे। शिवाजी अपने मित्र-पुत्र छत्रसाल को देखकर अत्यंत खुश हुये। कुछ साल तक अपने निकट रख कर उन्होंने छत्रसाल को युद्धनीति की पूरी शिक्षा दी। एक रोज छत्रसाल को आशीवाद देते हुये शिवाजी बोले-छत्रसाल तुम जाकर अपनी मात्रभूमि की रक्षा करो। वहां की प्रजा तुम्हारी राह देख रही है। यहां रहकर मेरी सहायता करते रहोगें तो सम्पूर्ण श्रेय मुझे मिलेगा। अत: तुम अपने पुरुषार्थ के श्रेयपात्र बनने के लिये बंदेल खण्ड वापिस जाओ।
छत्रसाल की सेना
छत्रसाल ने बंदेल खण्ड वापस आकर कुछ लोगों की सहायता से छोटी सी फौज की टुकड़ी तैयार की। कहा जाता है कि घुड़सवार और 25 पैदल सेना को लेकर छत्रसाल ने प्रथम मोर्चा बांधा। उस समय मुगलों का सामना करना कोई खिलवाड़ नहीं था। प्राण की बाज़ी लगाकर, छत्रसाल अपने बंदेल खण्ड के कुछ हिस्सो को स्वतंत्रता दिलाने में सफल हुये। अपनी फौज को पूर्ण रूप से वेतन तथा भोजन न दे पाने के कारण छत्रसाल का हृदय द्रवित हो गया। विन्ध्याचल की गोद में बसे बुन्देल खण्ण की पथरीली भूमि उजाड़ दी। धन उगलने की अवस्था में नही थी अकस्मात छत्रसाल को जंगल में एक महात्मा से मिलने का सुयोग प्राप्त हुआ। महात्मा ने छत्रसाल को ढांढस बांधते हुये कहा कि आज से ठीक बारह वर्ष बाद निष्कलंक बुध महामति से मिलाप होगी। छत्रसाल इसी भरोसे को लिये अपना समय गुजारते रहे।
महाराजा छत्रसाल का आध्यात्मिक अनुशीलन इतना प्रखर एवं प्रकाशवान है कि उसके सामने सभी विधाएं नतमस्तक है। उनका आध्यात्मिक चिंतन उस समय से होता है जब वे लगभग 22 वर्ष के थे उसी समय उनके जीवन में। अनोखी घटना घटी। भादों की रात्रि छत्रसाल गहरी नींद में सो रहे थे। उनके कक्ष में एका-एक प्रकाश फैल गया एक शुभ्र वैषधारी की निर्मल छबि सामने थी। छत्रसाल जाग उठे इस निर्मल छवि ने कहा, मैं तुम्हें दूसरी बार मिल रहा हूं इसके पूर्व जंगल मे मिला था, तुम्हे पूरे भारत का सम्राट बनाने की रोटी खिलाना चाहता था। तुमने चौपाई ही खाई। आज एक सिक्का दे रहा हूं। छवि अदृश्य हो गई, सिक्का हाथ में पाकर छत्रसाल को बचपन के जंगल की याद ताजी हो गई। सिक्को की छवि को चूम लिया और गले में धरण कर लिया। इसी दिन से छत्रसाल के मन में परमतत्व को खोजने की अभिलाषा उत्पन्न हो गई।
छत्रसाल एवं प्राणनाथ को मिलाया
परमधाम से आई हुई ब्रत्हात्माओं को जगाने, सब धर्म और जाति के बीच समन्वय स्थापित करने एवं धर्मान्ध मुगलों के विरुद्ध हिन्दू राजाओं को संगठित करके विदेशी शासकों के पंजे से मात्रभूमि को स्वतंत्र करने त्रिपक्षीय उदद्देश्य को लेकर पश्चिमोत्तर भारत वर्ष के कोने-कोने में से होकर स्वामी श्री प्राणनाथ जी मध्यप्रदेश पहुँचे थे। सम्वत 1740 में प्रथम छत्रसाल का मिलाप स्थामी श्री प्राणनाथ जी से हुआ महात्मा जी द्वारा दी गई निशानी से महामति प्राणनाथ जी का परिचय पाकर छत्रसाल उनके सच्चे अनुयायी बने। पन्ना स्थित चौपड़े की हवेली में महामति प्राणनाथ जी को पधारकर अपनी सारी निधि व राज्य उनके चरणो में भेंट स्वरूप अर्पण किया। छत्रसाल ने सिर पर अपने वरद हस्त रखते हुये महामति श्री प्राणनाथ जी ने उन्हें धन, बल, शौर्य और सम्रिधि प्राप्ति को आशीवाद दिया। एक छोटे से शासक को गुरु की कृपा से महान बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। छत्रसाल को स्वामी श्री प्रागनाथ जीन महाराज की उपाधि से विभूषित किया। तब से राजे रजवाड़ो के बीच वे महाराज छत्रसाल के नाम से जाने जाने लगे। छत्रसाल की ओर देखकर स्वामी जी मुस्कुराये और बोले ‘छत्रसाल’ यह बहुत ही शुभ समाचार है विजयादशमी का दिन है। इसी दिन अभिमानी लंकापति रावण का सर्वनाश हुआ था अब समय आ गया है कि तुम भी मुगल सत्ता का नाश कर डालो मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि शेर अफमन की मौत इसी मिट्टी में होनी है। तभी वह बार-बार अपनी मौत को ललकारता चला आता है तुम चिन्ता मत करो कहते हुये महामति ने छत्रसाल के माथे पर तिलक लगाया, अपने हांथो से पान का बीड़ा दिया और तलवार देते हुये अभय और विजय का वरदान दिया। साथ ही यह भी आर्शीवाद दिया कि आज तुम्हारा घोड़ा जितने इलाके का चक्कर लगाऐगा, उतनी भूमि हीरा, प्रसविनी हो जाऐगी। यथा-
छत्ता तेरे राज में
धक-धक धरती होय।
जित-जित घोड़ा पग धरे,
तिल-तिल होरा होय।।
महाप्रभु का यह वरदान पाकर छत्रसाल गद-गद हो उठे। अपने गुरु के चरणों में साष्टांग करते हुए उनके चरण-चूमकर उठे और घोड़े की रास पकड़ कर बोले- भले भाई-चलो राज स्वामी जी का आशीर्वाद मिल गया है अब बल और वैभव की कमी नहीं है। कुछ धन की कमी थी सो वह भी आज पूरी हो गई। यह कहकर घोड़े का ऐंठ लगाई और इलाके में दौड़ लगाने लगे। कहते है छत्रसाल ने उस दिन भले भाई घोड़े की पीठ पर बैठकर सत्ताईस कोस जमीन का चक्कर लगाया। तभी से पन्ना के उतने भू-भाग में हीरा मिलने लगा और पन्ना हीरों की नगरी कहलाने लगी।
जहां छत्रसाल एक निर्भीक योद्धा कुशल प्रशासक थे वहीं एक अच्छे भक्त कवि थे। उनके दरबार में काव्य प्रेमियों का बड़ा सम्मान प्राप्त था। कहा जाता है कि उनके दरबार में 82 कवि थे इन कवियों में कुछ कविराज्य आश्रित कुछ महामति श्री प्राणनाथ के शिष्य थे। राज्य आश्रित कवियों में लाल कवि, भानुभट्ट, विन्द्रावन, हरिकेश, नेवाज, भगवत, रसिक, करन भट्ट, हरिचन्द्र, पंचम लाल मनि गुलाल सिंह वक्खी, केशवराज, हिम्मत सिंह कायस्थ, प्रताप शाह बंदीजन भूषण एवं व्रजभूषण कवि प्रमुख हैं। महाराजा छत्रसाल जी एक राजा थे इसलिये उनकी जय नहीं बोली जाती राजा की जय तो उसके देश में भी कई लोग नहीं बोलते किन्तु हमारे महाराजा के नाम की जय तो दुनिया के किसी कोने में भी कोई प्रणामी बच्चा रहता होगा तो दिन में कम से कम तीन बार जरूर बोलता है। सैकड़ो वर्ष बाद आज की बुन्देल खण्ड का व्यापारी सवेरे-सवेरे व्यापार प्रारंभ करते हुये अगरबत्ती जलाकर कहता है।
छत्रसाल महावली, करियो सब भली-भली
इसका खास कारण यह है कि महामति में अपना सम्पूर्ण कार्यभार छत्रसाल को सौंपा है। उन्हें सुन्दरसात सेना का नायक बनाया है। और उनके अन्दर अखझउ रूप से विराजमान होकर शेष कार्य पूर्ण किये है। आन सुन्दरनाथ जगत में जहां कहीं भी मुखवाणी का वर्चस्व, परम एश्वर्य औ खुशहाली देखने को मिल रही है वह महाराजा श्री छत्रसाल की पूर्ण कृपा का फल है। उन्होंने देश-देशांतर्गत प्रखर विद्वानों को भेज-भेजकर श्रीमुखवाणी पहुंचाई और अपने धर्म के थाने (मंदिर) स्थापित किये। प्रणामी समाज उनका चिर ऋणी है। इसलिये सर्वत्र उनका जयकारा लगाया जाता है। जब तक यह संसार रहेगा तब तक उनका जयकारा होता रहेगा। बोलिए श्री महाराजा छत्रसाल जी की जय!
संकलनकर्ता
आर.के. शर्मा
सेवानिवृत मतस्य अधिकारी, रायगढ़