रायगढ़। स्व. प्राणसुख दास जी व पूर्वजों के आर्शीवाद से पूर्व विधायक विजय अग्रवाल के ऐरन परिवार के द्वारा पितृ मोक्षार्थ गया श्राद्धन्तर्गत होटल श्रेष्ठा रायगढ़ में आयोजित श्री भागवत महापुराण कथा के अंतिम दिवस में व्यासपीठ पर आसीन जगतगुरू स्वामी रामानुजाचार्य श्री श्रीधराचार्य जी महाराज ने भक्त सुदामा कृष्ण चरित्र कथा, एवं ,परीक्षित मोक्ष, शुकदेव विदाई प्रसंग का कथा श्रवण कराया। उन्होंने कहा कि विश्व में शांति स्थापित करना है तो श्री कृष्ण सुदामा जैसी मित्रता को महत्व देनी होगी। मानव और देव की मित्रता को आज भी याद किया जाता है। शांति प्रेम और मित्रता का संदेश देता है श्री कृष्ण सुदामा मिलन इनकी मित्रता पूरे दुनिया में जाना जाता है।
श्रीधराचार्य महाराज जी ने बताया कि मित्रता कैसे निभाई जाए यह भगवान श्री कृष्ण सुदामा जी से समझ सकते हैं। उन्होंने कहा कि सुदामा अपनी पत्नी के आग्रह पर अपने मित्र (सखा) से सुदामा मिलने के लिए द्वारिका पहुंचे। उन्होंने कहा कि सुदामा द्वारिकाधीश के महल का पता पूछा और महल की ओर बढऩे लगे द्वार पर द्वारपालों ने सुदामा को भिक्षा मांगने वाला
समझकर रोक दिया। तब उन्होंने कहा कि वह कृष्ण के मित्र हैं। इस पर द्वारपाल महल में गए और प्रभु से कहा कि कोई उनसे मिलने आया है। अपना नाम सुदामा बता रहा है। जैसे ही द्वारपाल के मुंह से उन्होंने सुदामा का नाम सुना प्रभु सुदामा सुदामा कहते हुए तेजी भगवान से द्वार की तरफ भागे सामने सुदामा सखा को देखकर उन्होंने उसे अपने सीने से लगा लिया। सुदामा ने भी कन्हैया-कन्हैया कहकर उन्हें गले लगाया और सुदामा को अपने महल में ले गए और उनका अभिनंदन किया। इस दृश्य को देखकर श्रोता भावविभोर हो गए श्रोताओं ने सुदामा और कृष्ण कृष्ण की जय- जयकार करने लगे। सुदामा चरित्र का कथा श्रवण कर भक्तवृन्द मंत्रमुग्ध हुए उन्होंने कथा का विस्तृत रूप से सुनाया उन्होंने कहा कि आखिर सुदामा को गरीबी क्यों मिली अगर आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो सुदामा बहुत धनवान थे, जितना भगवान नाम का धन उनके पास था उतना किसी के पास नहीं, लेकिन अगर भौतिक दृष्टि से देखा जाए तो वह बहुत निधन से आखिर क्यों एक ब्राह्मणी थी जो बहुत निर्धन थी जो अपना भिक्षा मांग कर जीवन यापन किया करतो लगभग पांच दिनों से उसे भिक्षा में कुछ भी नहीं मिला था, फिर छठवें दिन उसे भिक्षा में थोड़ा सा चना प्राप्त हुआ शाम का समय हो चुका था उस ब्राह्मणी ने सोचा कल सुबह स्नान करके भगवान को इस चना का भोग लगाकर ग्रहण करूंगी ऐसा सोच कर उसने इस बने के पोटली को घर पर रख दिया उसी रात में उस ब्राह्मणी के घर में कोई चोर चोरी करने घुस गया पर मैं उस चोर को वहीं चना का पोटली मिल गया चोर ने सोचा इसमें सोने के सिके हो सकते हैं और उस चना के पोटली को चोर चोरी करके ले जा रहा था उसी समय उस ब्राम्हणी की नींद खुल गयी उसने शोर मचाना शुरु किया। गांव के सारे लोग चोर को पकडऩे के लिए दौडऩे लगे चोर पकड़े जाने के डर से सांदीपनी मुनि के आश्रम में छिप गया।
सांदीपनी मुनी का आश्रम गांव के नजदीक था जहां कृष्ण और सुदामा जी एक साथ शिक्षा अध्ययन किया करते थे। गुरु माता को लगा कि आश्रम में कोई छिपा है वह अंदर जाने लगी चोर को पता चल गया कि कोई अंदर आ रहा है वहां से भागने लगे लेकिन भागते वक्त चोरों के हाथ से वह चना को पोटली वही छूट गई गुरु माँ ने सोचा कि कोई यहां चना की पोटली रख गया है। इधर उस निर्धन ब्राह्मणी ने जाना कि मेरे चना की पोटली चोर ले गया है तो उस दिन ही निर्धन ब्राह्मणी ने श्राप दे दिया कि उस चने की जो खाएगा वह मेरे समान ही अत्यंत गरीब और निर्धन हो जाएगा। प्रात: काल सुदामा और श्रीकृष्ण जंगल लकड़ी लेने जा रहे थे तो गुरु माता ने सुदामा को वहीं चना के पोटली दिया और कहा बेटा भूख लगे तो दोनों मिलकर इस चना को खा लेना सुदामा जी जन्मजात ब्रह्म जानी थे। सुदामा के हाथ में चना आते ही उन्हें पिछला सब रहस्य मालूम हो गया। सुदामा ने सोचा गुरु माँ ने कहा है चने को दोनों बराबर बांट के खाना अगर मैंने त्रिभुवन पति श्री कृष्ण को चने खिलाए तो पूरी सृष्टि निधन हो जाएगी। मेरे जीवित रहते मेरे मित्र श्री कृष्ण निर्धन हो जाए सुदामा ने सारे चने स्वयं खा लिए निर्धनता का श्राप सुदामा ने स्वयं से लिया चने खाकर, लेकिन श्रीकृष्ण को एक भी चने नहीं दिए इसीलिए सुदामा जीवन भर गरीबी का जीवन यापन करते थे लेकिन भगवान की कृपा प्राप्त होते ही धनवान हो गए मित्रता हो तो सुदामा और श्रीकृष्ण की तरह जो संकट में भी अपने मित्र के काम आए। मित्रता करो तो श्री कृष्णा और सुदामा के जैसे कथा का विश्राम होते ही समस्त कथा प्रेमियों के आंखों से आंसू आ गई। इस मौके पर भारी भीड़ पंडाल में उमड़ पड़ी। वहीं श्रीमद् भागवत कथा विश्राम के बाद महाआरती के बाद प्रसाद वितरण किया गया।